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Usha Priyamvada ki Kahaani Waapsiवापसी

Usha Priyamvada ki Kahaani Waapsi : वापसी (उषा प्रियम्वदा)
घनी कहानी, छोटी शाखा: उषा प्रियम्वदा की कहानी ‘वापसी’ का पहला भाग..
घनी कहानी,छोटी शाखा: उषा प्रियम्वदा की कहानी “वापसी” का दूसरा भाग
घनी कहानी,छोटी शाखा: उषा प्रियम्वदा की कहानी “वापसी” का तीसरा भाग

भाग-4

(अब तक आपने पढ़ा..अपनी नौकरी के कारण वर्षों घर-परिवार से दूर रहे गजाधर बाबू, रिटायरमेंट के बाद परिवार के साथ सुखपूर्वक बाक़ी जीवन बिताने का सपना लिए घर वापस आते हैं। लेकिन परिवार के लोगों को उनके बिना, रहने और बेरोक-टोक जीवन जीने की ऐसी आदत हो चुकी है कि उन्हें गजाधर बाबू का होना खटकने लगता है। गजाधर बाबू पहले पहल इसे आम बात मानकर परिवार में अपनी जगह बनाने की कोशिश करते हैं, पर हर बार मिली उपेक्षा से उनका मन व्यथित हो जाता है और वो मन ही मन किसी भी मामले में दख़ल न देने का प्रण कर बैठते हैं। उन्हें परिवार में पत्नी से मिली उपेक्षा सबसे ज़्यादा खलती है, उनके मन के बोझ को पत्नी भी समझने में असमर्थ होती है, क्या दूरी रिश्तों में इतनी व्याप्त हो चुकी है?..अब पढ़ते हैं आगे..)

जिस व्‍यक्ति के अस्तित्‍व से पत्‍नी माँग में सिंदूर डालने की अधिकारिणी है, समाज में उसकी प्रतिष्‍ठा है। उसके सामने वह दो वक्‍त भोजन की थाली रख देने से सारे कर्तव्‍यों से छुट्टी पा जाती है। वह घी और चीनी के डिब्‍बों में इतनी रमी हुई है कि अब वही उसकी संपूर्ण दुनिया बन गई है। गजाधर बाबू उनके जीवन के केंद्र नहीं हो सकते, उन्‍हें तो अब बेटी की शादी के लिए भी उत्‍साह बुझ गया। किसी बात में हस्‍तक्षेप न करने के निश्‍चय के बाद भी उनका अस्तित्‍व उस वातावरण का एक भाग न बन सका। उनकी उपस्थिति उस घर में ऐसी असंगत लगने लगी थी, जैसे सजी हुई बैठक में उनकी चारपाई थी। उनकी सारी खुशी एक गहरी उदासीनता में डूब गई।

इतने सब निश्‍चयों के बावजूद गजाधर बाबू एक दिन बीच में दखल दे बैठे। पत्‍नी स्‍वभावानुसार नौकर की शिकायत कर रही थीं, ‘कितना कामचोर है, बाजार की भी चीज में पैसा बनाता है, खाने बैठता है, तो खाता ही चला जाता है।’ गजाधर बाबू को बराबर यह महसूस होता रहता था कि उनके घर का रहन-सहन और ख़र्च उनकी हैसियत से कहीं ज्‍यादा है। पत्‍नी की बात सुन कर लगा कि नौकर का खर्च बिलकुल बेकार है। छोटा-मोटा काम है, घर में तीन मर्द हैं, कोई न कोई कर ही देगा। उन्‍होंने उसी दिन नौकर का हिसाब कर दिया। अमर दफ्तर से आया तो नौकर को पुकारने लगा। अमर की बहू बोली, Usha Priyamvada ki Kahaani Waapsi

“बाबूजी ने नौकर छुड़ा दिया है”
“क्‍यों?”
“कहते हैं, ख़र्च बहुत है”

यह वार्तालाप बहुत सीधा सा था, पर जिस टोन में बहू बोली, गजाधर बाबू को खटक गया। उस दिन जी भारी होने के कारण गजाधर बाबू टहलने नहीं गए थे। आलस्‍य में उठ कर बत्ती भी नहीं जलाई थी – इस बात से बेख़बर नरेंद्र माँ से कहने लगा,

“अम्‍माँ, तुम बाबूजी से कहती क्‍यों नहीं? बैठे-बिठाए कुछ नहीं तो नौकर ही छुड़ा दिया। अगर बाबूजी यह समझें कि मैं साइकिल पर गेहूँ रख आटा पिसाने जाऊँगा, तो मुझ से यह नहीं होगा”

“हाँ अम्‍माँ”- बसंती का स्‍वर था, “मैं कॉलेज भी जाऊँ और लौटकर घर में झाड़ू भी लगाऊँ, यह मेरे बस की बात नहीं है”

“बूढ़े आदमी हैं”- अमर भुनभुनाया, “चुपचाप पड़े रहें। हर चीज में दखल क्‍यों देते हैं?”

पत्‍नी ने बड़े व्‍यंग्‍य से कहा, “और कुछ नहीं सूझा, तो तुम्‍हारी बहू को ही चौके में भेज दिया। वह गई तो पंद्रह दिन का राशन पाँच दिन में बना कर रख दिया”- बहू कुछ कहे, इससे पहले वह चौके में घुस गईं।

कुछ देर में अपनी कोठरी में आईं और बिजली जलाई तो गजाधर बाबू को लेटे देख बड़ी सिटपिटाईं। गजाधर बाबू की मुख-मुद्रा से वह उनमें भावों का अनुमान न लगा सकीं। वह चुप आँखें बंद किए लेटे रहे।

गजाधर बाबू चिट्ठी हाथ में लिए अंदर आए और पत्‍नी को पुकारा। वह भीगे हाथ निकलीं और आँचल से पोंछती हुई पास आ खड़ी हुईं। गजाधर ने बिना किसी भूमिका के कहा-

“मुझे सेठ रामजीमल की चीनी मिल में नौकरी मिल गई है। ख़ाली बैठे रहने से तो चार पैसे घर में आएँ, वही अच्‍छा है। उन्‍होंने तो पहले ही कहा था, मैंने ही मना कर दिया था”- फिर कुछ रुक कर, जैसे बुझी हुई आग में चिनगारी चमक उठे, उन्‍होंने धीमे स्‍वर में कहा, “मैंने सोचा था कि बरसों तुम सबसे अलग रहने के बाद, अवकाश पा कर परिवार के साथ रहूँगा। ख़ैर, परसों जाना है। तुम भी चलोगी?”

“मैं?”- पत्‍नी ने सकपका कर कहा, “मैं चलूँगी तो यहाँ का क्‍या होगा? इतनी बड़ी गृहस्‍थी, फिर सियानी लड़की…”

बात बीच में काट गजाधर बाबू ने हताश स्‍वर में कहा, “ठीक है, तुम यहीं रहो। मैंने तो ऐसे ही कहा था”- और गहरे मौन में डूब गए। Usha Priyamvada ki Kahaani Waapsi

नरेंद्र ने बड़ी तत्‍परता से बिस्‍तर बाँधा और रिक्‍शा बुला लाया। गजाधर बाबू का टीन का बक्‍सा और पतला-सा बिस्‍तर उस पर रख दिया गया। नाश्‍ते के लिए लड्डू और मठरी की डलिया हाथ में लिए गजाधर बाबू रिक्‍शे पर बैठ गए। एक दृष्टि उन्‍होंने अपने परिवार पर डाली। फिर दूसरी ओर देखने लगे और रिक्शा चल पड़ा।

उनके जाने के बाद सब अंदर लौट आए। बहू ने अमर से पूछा, “सिनेमा ले चलिएगा न?”

बसंती ने उछल कर कहा, “भइया, हमें भी”

गजाधर बाबू की पत्‍नी सीधे चौके में चली गईं। बची हुई मठरियों को कटोरदान में रखकर अपने कमरे में लाईं और कनस्‍तरों के पास रख दिया, फिर बाहर आ कर कहा- “अरे नरेंद्र, बाबूजी की चारपाई कमरे से निकाल दे। उसमें चलने तक की जगह नहीं है”

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समाप्त

(इस कहानी के सर्वाधिकार लेखिका के पास सुरक्षित हैं। इस कहानी को यहाँ शामिल करने का एकमात्र उद्देश्य इसे ज़्यादा से ज़्यादा पाठकों के पास पहुँचाना है। इससे किसी की भी भावना को ठेस पहुँचाने का हमारा कोई इरादा नहीं है। अगर आपको किसी भी तरह की कोई आपत्ति हो तो हमें sahitydunia@gmail.com पर सम्पर्क करें।)

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