किताबों की दुनिया कुछ यूँ होती है कि आपको बैठे-बिठाए दुनिया भर की सैर करा सकती है। वो दुनिया कोई भी हो सकती है आपके आसपास वाली या सात समंदर पार की या फिर किसी कल्पनालोक की उड़ान भी किताबों के ज़रिए भरी जा सकती है। जब बात कल्पनालोक की हो तो लेखक/लेखिका के कल्पनालोक में सफ़र करना होता है ऐसे में अगर आप बड़ी आसानी से लेखक/लेखिका के कल्पनालोक में बिना ज़्यादा मुश्किल के पहुँच जाएँ तो कहानी के पात्रों से भी जुड़ जाते हैं।
कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ जब जतिन गुप्ता की लिखी “Kali yuga: The Ascension (कलियुग) पढ़ना शुरू ही किया। ये कहानी यूँ तो पौराणिक कथाओं का सा एक एहसास लिए हुए है लेकिन ये किसी भी पौराणिक कथा का हिस्सा नहीं है बल्कि इसमें पौराणिक कथाओं का आधार लेकर एक कल्पनालोक की रचना की गयी है।
जैसा कि पौराणिक कथाओं में अलग-अलग युगों का उल्लेख मिलता है और कलियुग के बारे में कई बातें हैं।उन्हें आधार मानकर एक काल्पनिक कहानी लिखी गयी है। लेकिन फिर भी ऐसे लगता है मानो वो कल्पनालोक कहीं वाक़ई हो। कहानी के बारे में ज़्यादा न बताते हुए ये बताना चाहते हैं कि लेखक ने कहानी को कुछ इस तरह लिखा है कि पढ़ते हुए कुछ पता ही नहीं चलता कब उस दुनिया में खोते जाते हैं।
कहानी का लेखन इतना सरल है कि लगातार पढ़ते हुए भी कहीं बोझिल नहीं लगती और पौराणिक गाथा को एक नया रूप दिया गया है। ये कहानी है परशुराम की और उनके संरक्षण में बढ़ते हुए मानव जाती समूहों की। इस कहानी में कई मोड़ आते हैं और रोमांच साथ चलता है। एक ऐसी कहानी जो इससे पहले शायद सोची भी नहीं गयी है।